महादेवी वर्मा की कविताओं में बंधन में पड़ी असीम चेतना की अनुभूति से साक्षात्कार कराती हैं 

( 26 मार्च, कवयित्री महादेवी वर्मा की 118 वीं जयंती पर विशेष)

महादेवी वर्मा की कविताओं में बंधन में पड़ी असीम चेतना की अनुभूति से साक्षात्कार कराती हैं 

देश की महानतम कवयित्री महादेवी वर्मा का नाम स्मरण होते ही कविता की पंक्तियां खुद-ब-खुद मन मस्तिष्क में गुंजित होने लगती है। उन्होंने रहस्यवाद और छायावाद को एक नई दृष्टि प्रदान करने का जो बीड़ा उठाया था, उसे उन्होंने अपने जीवन काल में ही संपूर्ण कर दिखाया था।  तब शायद रहस्यवाद और छायावाद ये दोनों विषयों से कविता संसार अनभिज्ञ था।  उन पर रहस्यवाद और छायावाद होने का आरोप भी उनके जीवनकाल मे ही पड़ता रहा था ।  आज भी आलोचक उनकी कविताओं से रहस्यवाद और छायावाद की पंक्तियों को उद्धृत कर आलोचना रत हैं। यह लिखने में तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं होगी  कि महादेवी वर्मा रहस्यवाद और छायावाद की कवयित्री थीं। उनके काव्य में आत्मा-परमात्मा के मिलन विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता के प्राण रहे हैं। जिस दुख से लोग बराबर भागने की कोशिश करते रहते हैं।  महादेवी वर्मा ने उस दुःख को गले लगाया और इसे ही संसार का यथार्थ माना।  दुःख से आप कितना भी भाग लें, दुःख आपका पीछा छोड़ेगा नहीं। इसलिए बेहतर है कि दुःख से संगति बैठा लें । दुःख से दोस्ती कर   लें । यही महादेवी वर्मा का छायावाद है। उनका समस्त काव्य वेदनामय है। उन्हें निराशावाद अथवा पीड़ावाद की कवयित्री कहा गया है। उन्होंने अपनी पंक्तियों में दर्ज किया है कि 'दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जिसमें सारे संसार को एक सूत्र में बांध रखने की क्षमता है।'  इनकी कविताओं में सीमा के बंधन में पड़ी असीम चेतना का क्रंदन है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिसने उस अनुभूति क्षेत्र में प्रवेश किया हो। 
    कवयित्री महादेवी इस वेदना को उस दुःख की भी संज्ञा देती हैं, जो सारे संसार को एक सूत्र में बांधे रखने की क्षमता रखता है। लेकिन विश्व को एक सूत्र में बांधने वाला दुःख सामान्यतया लौकिक दुःख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परंपरा में करुण रस का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दुःख को नहीं अपनाया है। उन्होंने  दर्ज किया है कि 'मुझे दुःख के दोनों ही रूप प्रिय हैं। एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधनों में बांध देता है और दूसरा वह, जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतना का क्रंदन है। उनकी कविताओं के भाव को बस दिल लगाकर समझाने की जरूरत है। इसीलिए रामचंद्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही संदेह व्यक्त करते हुए लिखा है कि 'इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियां सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहां तक वे वास्तविक अनुभूतियां हैं और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।' इसी आध्यात्मिक वेदना की दिशा में प्रारंभ से अंत तक महादेवी के काव्य की सूक्ष्म और विवृत्त भावानुभूतियों का विकास और प्रसार दिखाई पड़ता है।  हज़ारी प्रसाद द्विवेदी तो उनके काव्य की पीड़ा को मीरा की काव्य-पीड़ा से भी बढ़कर मानते हैं।  हजारी प्रसाद द्विवेदी ने महादेवी वर्मा की कविताओं को मीरा की पंक्तियों से तुलना कर उनकी कृतियों को एक नई ऊंचाई प्रदान कर दिया। आलोचकों को महादेवी वर्मा की कविताओं पर लिखने से पूर्व एक बार रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी की पंक्तियों पर जरूर नजर डालनी चाहिए ताकि महादेवी वर्मा के रहस्यवाद और छायावाद के मूल अर्थ को समझ सकें।
   महादेवी वर्मा की  पंक्तियां जब समस्त मानव जीवन को  निराशा और व्यथा से परिपूर्ण रूप में देखती थीं।  तब उन्होंने दर्ज किया कि 'मैं नीर भरी दुख की बदली/ विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना/ परिचय इतना इतिहास यही- उमड़ी थी कल मिट आज चली।' मानव जीवन की तरह दु:ख का भी निरंतर आना-जाना लगा रहता है। न ही दु:ख स्थाई होता है । और न ही सुख स्थाई होता है।  इस रहस्य को समझने की जरूरत है। जिस पल मनुष्य इस रहस्य पर से पर्दा उठा देता है, समझ लीजिए उसी पल दुःख में भी उसे एक आनंद की अनुभूति होगी। महादेवी जी के प्रेम वर्णन में ईश्वरीय विरह की प्रधानता है। उन्होंने आत्मा की चिरंतन विकलता और ब्रह्म से मिलने की आतुरता के बड़े सुंदर ढंग से दर्ज किया है कि 'मैं  कण-कण में डाल रही अलि आंसू के मिल प्यार किसी का/मैं  पलकों में पाल रही हूं ,यह सपना सुकुमार किसी का।' इन पत्तियों में उन्होंने आंसू शब्द के माध्यम से बड़ी बात कहने की कोशिश की है। संसार कितना भी दु:ख भरा क्यों  न हो, उस दुःख से संगति करने की जरूरत है । इसके साथ ही दूसरे के दु:ख को अपना दुख समझने की जरूरत है। उनकी  आंखों बहते आंसुओं को अपने आंसू की संगति देकर जीवन के अर्थ और मर्म दोनों को बदल देने की जरूरत है।
   महादेवी वर्मा ने 'अग्निरेखा` में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएं लिखीं । साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएं दर्ज  की हैं। उनका रचना संसार बहुत ही विस्तृत है। उनकी हर एक रचना एक  नई बात कहती है। महादेवी वर्मा का विचार है कि अंधकार से सूर्य नहीं दीपक जूझता है। कविता की पंक्तियां हैं। रात के इस सघन अंधेरे में जूझता सूर्य नहीं, जूझता रहा दीपक/ कौन सी रश्मि कब हुई कंपित/ कौन आंधी वहां पहुंच पायी?
/कौन ठहरा सका उसे पल भर/ कौन सी फूंक कब बुझा पायी।'  उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री यह बताना चाहती हैं कि  रात्रि को रौशनी से जूझना नहीं पड़ता है बल्कि सूर्य को ही सघन काली रात्रि से जूझना पड़ता है। जीवन में अगर दुःख है, तो संघर्ष और धैर्य ही उससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता । दुःख मनुष्य को संघर्ष करने की शक्ति प्रदान करता है।
  कवयित्री महादेवी छायावाद के कवियों में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट और निराला स्थान रखती हैं। इस विशिष्टता के दो कारण हैं ।  पहला उनका कोमल ह्रदय नारी होना और दूसरा अंग्रेज़ी और बंगला के रोमांटिक और रहस्यवादी काव्य से प्रभावित होना। इन दोनों कारणों से एक ओर तो उन्हें अपने आध्यात्मिक प्रियतम को पुरुष मानकर स्वाभाविक रूप में अपना स्त्री - जनोचित प्रणयानुभूतियों को निवेदित करने की सुविधा मिली, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन तथा संत युग के रहस्यवादी काव्य के अध्ययन और अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन छायावादी कवियों के काव्य से निकट का परिचय होने के फलस्वरुप उनकी काव्याभिव्यंजना और बौद्धिक चेतना शत-प्रतिशत भारतीय परंपरा के अनुरूप बनी रही। इस तरह उनके काव्य में जहां कृष्ण भक्ति काव्य की विरह-भावना गोपियों के माध्यम से नहीं, सीधे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकाशित हुई हैं, वहीं सूफी पुरुष कवियों की भांति उन्हें परमात्मा को नारी के प्रतीक में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
  हम सबों को यह जानना चाहिए कि महादेवी की कविता अनुभूति से परिपूर्ण है, पंत और निराला की कविताएं दार्शनिकता के बोझ से दब-सी गई हैं, किंतु महादेवी जी के काव्य में ऐसी बात नहीं। उसमें दार्शनिकता होते हुए भी सरसता है। वह सर्वत्र भावना प्रधान है। महादेवी जी के काव्य में संगीतात्मकता का विशेष गुण है। वे गीत लेखिका हैं। गीतों की लय छंदों पर उनका अद्भुत अधिकार हर जगह दिखाई देता है। वे महादेवी माधुर्य भाव की उपासिका हैं। ब्रह्म को उन्होंने प्रियतम के रूप में देखा है। अपने प्रेमपात्र के लिए उन्होंने 'प्रिय' संबोधन दिया है। उनके गीत उज्ज्वल प्रेम के गीत हैं। इसके द्वारा अपने अंतर की जिस सात्विकता का उन्होंने परिचय दिया है वह उनकी काव्य-गरिमा का आधार स्तंभ है। जब जीवन में दिव्य प्रेम के मधु संगीत के रागिनी झंकृत हुई तब कवयित्री के मन में उसने असंख्य नए स्वप्नों को जन्म दिया ।