'हव्वा की बेटियां' की कविताएं रूह को स्पर्श कर जाती हैं
(लब्ध प्रतिष्ठित कवयित्री मोना बग्गा 'दिशा' की 'हव्वा की बेटियां' कविता संग्रह पर समीक्षा)

झारखंड की लब्ध प्रतिष्ठित कवयित्री मोना बग्गा 'दिशा' की प्रकाशित कविता संग्रह 'हव्वा की बेटियां' की कविताएं सीधे रूह को स्पर्श कर जाती हैं। इसके साथ ही इनकी कविताएं स्त्री विमर्श, सामाजिक सरोकारों, समस्याओं और समाज में घट रही विभिन्न प्रकार की घटनाओं पर अपनी मजबूत उपस्थित दर्ज करती हैं । कविता की पंक्तियां समाज के हर वर्ग के लोगों को जागरूक कर संघर्ष व बदलाव के लिए आह्वान करती हैं । खासकर समाज की वैसी महिलाएं, जो जीवन में कुछ बनना चाहती हैं, कुछ अलग करना चाहती हैं, खुले आकाश में उड़ना चाहती हैं, उनकी आवाज को बहुत ही शानदार पंक्तियों के माध्यम से उठाती नजर आती है । 'हव्वा की बेटियां' कविता संग्रह में दर्ज विभिन्न शीर्षकों से कविताओं की भाषा बहुत ही सरल है । भाषा की सरलता होने के कारण कविता की पंक्तियां बिल्कुल अपनेपन का सुख भी दे जाती हैं। कविताओं के पाठन से प्रतीत होता है कि यह मेरी ही आप बीती है। कविताएं खुले छंदों में होने के बावजूद लय बद्ध होने का अहसास करा जाती हैं । इस संग्रह में कई कविताएं बहुत छोटी हैं, लेकिन कविता की पंक्तियों में बड़ी गहरी अर्थवत्ता छुपी हुई हैं । इन पंक्तियों में एक दर्शन है। एक नूतन विचार हैं। जो पाठकों के बीच अलग छाप छोड़ जाती हैं।
कवयित्री मोना बग्गा की जन्म भूमि हजारीबाग है । यहीं पढ़ी लिखीं और हजारीबाग को ही अपनी कर्मभूमि बनाईं। एक व्यवसायी के घर में जन्म लेने के बावजूद उनका छात्र जीवन से ही लेखन की ओर रूझान रहा, जो अनवरत बना हुआ है। संयोग से पति भी व्यवसायी ही मिले। इसके बावजूद उन्होंने अपनी गृहस्थी का निर्वहन बड़े ही अच्छे ढंग से कर, बच्चों को उच्च शिक्षा प्रदान करने के साथ लेखकीय कर्म को भी जारी रखा। उन्होंने अपना लेखन लघु कथा और आलेख से प्रारंभ किया था। लेकिन उनकी रूह कुछ और ही उनसे रचवाना चाहती थीं। उनकी कलम कविता की पंक्तियों की तलाश में एक बार ऐसा जुटी कि जुटती चली गईं ।मोना बग्गा एक अच्छी कवयित्री लेखक के साथ एक अच्छी पाठिका भी हैं। अपने जिले के साथ राज्य और देश विदेश में क्या कुछ घटनाएं घट रही हैं ? सब पर नजर रखती हैं। उनकी कविताओं के पाठन से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने समाज के हर वर्ग के लोगों की पीड़ा को स्वर देने का काम किया है। वह एक अच्छी चित्रकार भी हैं। फुर्सत के क्षणों में मन में उठते भावों को कविता की पंक्तियों के साथ चित्र बना कर अपनी विलक्षण प्रतिभा को भी प्रस्तुत करती रहती हैं। इतने बौद्धिक गुणों से संपन्न होने के बावजूद मोना बग्गा की सहजता और सरलता देखते बनती है। उनकी यही सहजता और सरलता कविता की पंक्तियों में दिखती हैं, जो पाठकों की रूह तक स्पर्श कर जाती हैं।
मोना बग्गा ने 'हव्वा की बेटियां' में एक जगह दर्ज की हैं कि 'कोई बड़ी शख्सियत नहीं हूं मैं /बस /कुछ अच्छा करना मेरी आदतों के शुमार है।' उक्त छोटी सी काव्यात्मक पंक्तियों के माध्यम से उन्होंने समाज को एक बड़ा सकारात्मक संदेश देने का काम किया है । व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न बन जाए । उसे यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि वह एक आम आदमी ही है। बड़े हो जाने के बावजूद उसे एक आम आदमी की तरह ही बन कर रहना चाहिए । यही उसे एक आदमी से जोड़े रखेगा । एक आम से आदमी बड़े बन जाने मतलब यह है कि उसे हर पल यह ध्यान रखना चाहिए की एक आम आदमी की क्या पीड़ा है ? उसकी क्या-क्या परेशानियां हैं ? उसकी पीड़ा और परेशानियों हम कैसे हल कर सकते हैं। इस दिशा में उसे कार्य करना चाहिए। आज हर एक व्यक्ति जो अपने जीवन के संघर्षों में दिन-रात लगा हुआ है, इसके बावजूद अगर समाज की भलाई के लिए कुछ अलग कर लेता है,यह उसके जीवन की बड़ी उपलब्धि होगी।
'हव्वा की बेटियां' कविता संग्रह में कुल एक सौ बाइस कविताएं विभिन्न शीर्षकों के नाम से दो सौ छ: पृष्ठों में दर्ज हैं। कवयित्री ने कविताओं के हर शीर्षक चुनाव बहुत ही सूझबूझ के साथ किया है। शीर्षक पर नजर जाते ही यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि आगे कविताओं की पंक्तियों में क्या बातें दर्ज होगी। 'हव्वा की बेटियां' इस कविता संग्रह की सैतैसवीं कविता सूची में दर्ज है। जब कवयित्री ने अपनी हर कविता का शीर्षक बहुत ही सूझबूझ के साथ रखा है, तब स्वाभाविक है कि कविता संग्रह का नामकरण भी उतने ही सूझबूझ के साथ रखा होगा। 'हव्वा की बेटियां' कविता की कोई विशेष खासियत रही होगी, जिस कारण उन्होंने इस संग्रह का नाम 'हव्वा की बेटियां' रखा। 'हव्वा की बेटियां' शीर्षक कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं। 'हव्वा की बेटियां मांगती हैं इंसाफ/ पर /कभी खुद नहीं /खड़ी हो पाती /खुद के लिए/ जिन स्त्रियों ने नहीं चाहा /कभी कदम बढ़ा कर जीना/जिन्होंने होने दिए /न चाहते हुए भी /खुद पर अत्याचार/ जिन्होंने आंखों देखे/ गलत पर नहीं/ उठानी चाही आवाज /बांध ली आंखों पर पट्टी/रौशनी बुझा/ कर लिया अंधेरा/ अपने चारों ओर /एक स्त्री होकर/ दूसरी स्त्री को/ करती रही प्रताड़ित/ जिन्होंने कभी नहीं / देखनी चाही/ खुद की नजरों से दुनिया /जिन्होंने नहीं कहना चाह सत्य /जिन्होंने नहीं सुननी चाही/उन्मुक्त गगन में उड़ान की भाषा /जिन्होंने कभी नहीं लांघी /उन रूढ़िवादी/ परंपराओं की दहलीज /ऐसी हव्वा की बेटियों ने /खुद बंद कर दिए/ न जाने, कितनी ही बेटियों के लिए दरवाजे/ एक दूसरे का साथ देते /गलत हो स्वीकारते हुए/ एक दूसरे के/ मुंह/ कान और /आंखें बंद कर दी/ खुद अपने हाथों से/और फिर/ निढाल हो /सीमित हो गई/ अपनी चाहर दिवारी के अंदर।'
उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री ने हमारी भारतीय स्त्रियों के उस सच को सामने रखने का प्रयास किया है, जो वर्षों से अपनी रूढ़िवादी परंपरा और सोच के कारण अपनी दहलीज को पार नहीं कर पाईं, जिस कारण आज भी शोषित और पीड़ित हैं । हमारे देश में 'हव्वा की बेटियां' दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि नामों से जानी और पूजी जाती हैं । इन तमाम देवीय गुणों से युक्त रहने के बावजूद वर्षों से स्त्री ही स्त्री के दुश्मन बन बैठी हैं । जिस कारण हमारे समाज की हव्वा की बेटियों की यह दुर्दशा है। कवयित्री चाहती हैं कि हमारी आज की बेटियां परंपरागत रूढ़िवादी बंधनों से मुक्त हो और उन्मुक्त होकर खुले गगन में उड़ करें। अपने मन की कर सकें। अपने लिए जी सकें । अपनी एक नई पहचान बना सकें । जैसा कि ऑपरेशन 'सिंदूर' के दौरान महिला वरीया सैन्य अधिकारी सोफिया कुरैशी ने कर दिखाया।
इस कविता संग्रह की छोटी कविताओं की श्रेणी में 'रूह' शीर्षक से एक कविता दर्ज है । कवयित्री दर्ज करती हैं कि 'अब मांगती हूं थोड़ा सुकून भी रूह के लिए /की जी पांऊं थोड़ी सांसे/ खुद के लिए।' उपरोक्त तीन पंक्तियों में ही देश की शोषित और पीड़ित महिलाओं की दुर्दशा को कवयित्री ने बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है । स्त्रियां हमारे समाज की रूह हैं। जब रूह का यह हाल है, तो सकल समाज का क्या हाल होगा ? इन पंक्तियों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है। कवयित्री यहां पूर्णतः बदलाव चाहती हैं। और कहती हैं कि 'जी पाऊं थोड़ी सांसे खुद के लिए। स्त्री विमर्श के नाम पर आज देश भर में गोष्ठियां और आंदोलन जरूर हो रहे हैं, लेकिन स्त्रियां हाशिए पर खड़ी नजर आ रही हैं। कवयित्री ने इस संग्रह में स्त्रियों के संबंध में एक और बड़ी बात इन पंक्तियों के माध्यम से कहने की कोशिश की है कि 'खुद को खोकर/ जिंदगी भर /खुद को ढूंढती रही /सच एक स्त्री से समझदार/ और भला/ कौन हो सकता है।' स्त्री विमर्श की दृष्टि में यह कविता संग्रह एक आवाज बनकर सामने आई है। वहीं सामाजिक सरोकारों से जुड़ी समस्याओं पर अपनी बेबाक राय रखते हुए, नए परिवर्तन की मांग करती हैं।