ग्रामीण यथार्थ से रूबरू कराता 'झूठा जग पतियाय' कहानी संग्रह
कथाकार ने इस कथा संग्रह में कुल बारह कहानियों को शामिल किया है। बारह कहानियों के पढ़ने से प्रतीत होता है कि लेखक का झुकाव आज भी अपने गांव के प्रति उसी तरह बना हुआ है।

कथाकार सुबोध सिंह शिवगीत का सद्द प्रकाशित कथा संग्रह 'झूठा जग पतियाय' ग्रामीण परिवेश के उस सच पर से पर्दा उठाने जैसा है, जो वर्षों पूर्व का भोगा यथार्थ था। इस कहानी संग्रह के बहुत सारे पात्र, अब इस धरती पर नहीं हैं, लेकिन उन सबों की बातें आज भी बड़े बुजुर्गों के मन मस्तिष्क में घूमती रहती हैं। यदा कदा बड़े बुजुर्गों के मुख से उन लोगों की किस्से लोगों तक संप्रेषित होती रहती हैं। चूंकि इस कथा संग्रह के लेखक ग्राम कदमा में स्थाई तौर पर निवास करते हैं । कदमा, हजारीबाग नगर से बिल्कुल सटा हुआ एक ग्रामीण क्षेत्र है । आज भी इस गांव के अधिकांश लोग खेती किसानी पर ही निर्भर हैं। लेखक भी एक कृषक परिवार से आते हैं । आज भी किसी न किसी रूप से कृषि से उनका गहरा जुड़ाव बना हुआ है । आज भी गांव के लोग उसी तरह मिलते जुलते रहते हैं । अपने दुःख दर्द को आपस में मिल बैठकर बांटते रहते हैं। ग्रामीण परिवेश के उस सादगी और मिठास को आज भारत के गांवों में देखा और महसूस किया जा सकता।
इन कहानियों में जन्मभूमि की माटी की खुशबू
कथाकार ने इस कथा संग्रह में कुल बारह कहानियों को शामिल किया है। बारह कहानियों के पढ़ने से प्रतीत होता है कि लेखक का झुकाव आज भी अपने गांव के प्रति उसी तरह बना हुआ है। उन्हें ग्रामीण परिवेश में सांस लेना सबसे अधिक पसंद है। उन्होंने अपनी जन्मभूमि की माटी की खुशबू को इन कहानियों में बड़े ही आदर और सम्मान के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया है । इस कथा संग्रह के 'निवेदन' में कथाकार सुबोध सिंह शिवगीत ने एक बड़ी अच्छी बात दर्ज की है कि 'वैज्ञानिक यथार्थ और साहित्यिक यथार्थ कभी भी एक नहीं हो सकते । साहित्य का यथार्थ चांद पर पहुंचकर भी सिर्फ और सिर्फ माइंस - मिनरल्स और दाग - धब्बे और गड्ढे ही नहीं देख सकता, कहीं न कहीं जीने - हंसने और जगाने - बढ़ने का सहारा खोज ही लेगा।' इन पंक्तियों से प्रतीत होता है कि मनुष्य चांद - तारों तक पहुंच कर भी अपनी मनुष्यता का क्षरण नहीं होने देता है । तभी वह मनुष्य के श्रेणी में आ सकता है। जिस पल हमने उन चांद तारों पर पहुंचकर सिर्फ माइंस और मिनरल्स ढूंढने लगते हैं, उस पल हमारी मनुष्यता का क्षरण हो जाता है। साहित्य इस क्षरण के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद करता है। साहित्य अपनी रचनाओं के माध्यम से उस सच को सामने लाता है, जिससे कि मनुष्यता बरकरार रह सके।
विपरीत परिस्थितियों में भी सच अडिग रहता है
कथाकार ने ग्रामीण परिवेश के उन भूले बिसरे पात्रों को इस कथा संग्रह शामिल कर फिर से जीवंत करने का प्रयास किया है। इस कथा संग्रह के पात्र जो बरसों पूर्व इस दुनिया से विदा हो गए, लेकिन उन पात्रों ने विषम परिस्थितियों में भी अपने स्वाभिमान और सच को कभी छोड़ा नहीं बल्कि कष्ट सहकर भी जीवन जिया, प्रेरणादाई है। ये पात्र निर्धनता के बावजूद अपने उसूल और सिद्धांत को कभी मरने नहीं दिये बल्कि उसे मजबूती के साथ थामे रखे थे । इस कथा संग्रह की एक कहानी 'भगतवा' का मुख्य किरदार अपने ही गांव की एक मुस्लिम लड़की से प्रेम कर बैठता है। यह प्रेम दोनों ओर का था। लेकिन यह प्रेम मंजिल तक पहुंच नहीं पाता है। वह भगत बन जाता है। लड़की का निकाह अन्यत्र लड़के से करा दिया जाता है। एक दिन भगतवा अपना गांव आता है। विधवा बन चुकी अपनी प्रेमिका से मिलता है। दोनों में हुई बातचीत को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। हिंदू मुस्लिम से परे प्रेम के इस निश्चल रूप को कथाकार ने बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया है। मिलन और विरहा की अग्नि में दोनों कैसे जलते हैं ? इस प्रसंग को भी बहुत ही जीवंत रुप में प्रस्तुत किया गया है।
कहानियों के पात्र समाज के लिए आज भी मिसाल हैं
इस कथा संग्रह की कहानियां के शीर्षक को एक नजर से देखने पर प्रतीत होता है कि इन शब्दों में कहीं न कहीं ग्रामीण परिवेश की मिठास घुली मिली हुई है। इस कथा संग्रह की पहली कहानी 'भगतवा', 'ढुक्कू', 'जगत में कैसा नाता रे', झूठा जग पतियाय', 'बड़की मइया', 'तेज करालो', 'साहेब,' 'मैडम', 'पांव लगी बाबूजी', 'तिनका तिनका जोरी के', 'गांव का अंतिम बैल', 'हबीब जंगी का इश्तहार'के नामों से दर्ज हैं। इस कथा संग्रह में जिन पात्रों को लेकर कहानियां लिखी गई हैं, वे सारे पात्र आज भी हमारे समाज के लिए एक मिशाल के समान हैं। उन सबों ने ज्यादा पढ़ाई - लिखाई नहीं कर भी एक शानदार जीवन जिया। उन सबों ने कठिनाइयों और चुनौतियों के दौर में भी लोगों को हंसना सिखाया। आज की बदली परिस्थिति में जहां लोग सौ दो सौ रुपए में ईमान बेच देते हैं । कुछ रुपए की खातिर लोगों की हत्या तक कर देते हैं। वैसे लोगों को 'झूठा जग पतियाय' कथा संग्रह एक दृष्टि देने का काम किया है ।
सामाजिक और पारिवारिक संवेदनशीलता को दिखाता है
'जगत में कैसा नाता रे' कहानी के माध्यम से एक बड़ी बात कहने की कोशिश की गई है । पांच वर्ष पूर्व जब कोरोना का कहर हम सबों के ऊपर पड़ा था । कोरोना ने असमय कई लोगों की जानें ले ली थी। यह स्पर्श से होने वाली बीमारी थी । लोग देखते ही देखते मर जा रहे थे। इस महामारी ने समाज के उस सच को सामने लाया है, जिस व्यक्ति ने अपना संपूर्ण जीवन अपने परिवार के नाम कर दिया था। कोरोना होने पर उसे देखने वाला कोई नहीं था। अस्पताल में वह मर जाता है। जब कल्याण समिति के लोग उसकी लाश को लेकर घर आते हैं, तो भी परिवार के लोग दरवाजा तक नहीं खोलते हैं। दरवाज़ा के अंदर से परिवार के लोग यह हिदायत देते हैं कि भाई ! विधि विधान से इसका दाह संस्कार कर दीजिएगा। मानवीयता के इस क्षरण को लेखक ने बहुत ही मार्मिक में ढंग से प्रस्तुत किया है । इस कहानी में उन्होंने बड़े बड़े अस्पतालों के उस सच पर से पर्दा उठा दिया है इलाज के नाम पर सिर्फ और सिर्फ लोगों को लूटा जा रहा था। कथाकार ने इस कहानी को बहुत ही नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है । इस कहानी के जुड़े तमाम पात्र जो कभी सुबह में एक मैदान में बैठकर योग प्राणायाम किया करते थे । जब कोरोना में उन सबों की जानें चली गईं, तब उनकी आत्माएं पुनः उस मैदान में आते हैं। और प्राणायाम योग से जुड़ जाते हैं। उन सबों की जानें कैसे गईं ? मनुष्य अपने स्वार्थ में कितना बदल जाता है ? उस सच को प्रस्तुत किया गया है।लेखक ने स्वीकार किया है कि आज की भागम भाग भरी जिंदगी में कहां किसको फुर्सत है, एक दूसरे की पीड़ा को समझने की । सभी तो धन, पद और नाम - यश के पीछे भाग रहे हैं। लेकिन कोरोना ने लोगों को थोड़ा समय दिया, घर में बैठ कर आत्म निरीक्षण करने के लिए । सारा कारोबार बंद। स्कूल - कॉलेज बंद । कार्यालय बंद। लेखक एक प्राध्यापक हैं ।कोरोना में वे भी घर में बैठ जाते हैं । परिवार के लोगों के बीच बीच बातचीत होती है। वे सुबह शाम गांव की दौड़ लगाते हैं। इस बातचीत और दौड़ के क्रम में उन्हें 'झूठा जग पतियाय' के पात्रों के किस्सों से साक्षात्कार होता है।
लेखक और पढ़कों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश
इस कथा संग्रह में उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात का जिक्र किया है कि कहानियां पहले भी लिखी जाती थी। आज भी लिखी जा रही है। लेकिन जैसे-जैसे हम सब विकास की ओर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, धाराओं में कैद होकर रचना कर्म रहे हैं । यह किसी भी सूरत में उचित नहीं है । उन्होंने दर्ज किया है कि 'रचनाकार और पाठक के बीच बढ़ती दूरियों का कारण यथार्थ के नाम पर धाराओं के प्रभाव में लिखा जा रहा साहित्य है। जिनसे पाठकों का सहज लगाव बन नहीं पा रहा है। पाठक को वाद और दिमाग की बजाए दिल की बातें जो दिल से लिखी जाती हैं , जिन साहित्य की रचनाओं से विविध धाराएं स्वत: फूटती हैं। वैसे साहित्य हर युग में स्वीकार्य रहा है । धारा का साहित्य की बजाय, साहित्य से धारा, जो युग की मांग है।'
झूठ और सच के फ़ासले को बखूबी दर्शाती है ये कहानियाँ
इस संग्रह की शीर्षक कहानी 'झूठा जग पतियाय' एक ऐसे दो परिवारों की कहानी है, जहां परस्पर सहयोग, दोस्ती और सहिया के मूल्यों को मजबूती के साथ स्थापित करता है। इस कथा के मुख्य पात्र सुनील वर्मा हैं। अपनी पत्नी शीला के साथ बहुत ही मजे के साथ रहते हैं। उनका बेटा बेंगलुरु में पढ़ रहा होता है । पत्नी के बार-बार बीमार रहने के दौरान घर के बगल की रधिया, जो गांव के रिश्ते नाते में उनकी भतीजी लगती हैं, रधिया मन से उस परिवार का सहयोग करती हैं। रधिया और सुनील वर्मा के बीच काफी मित्रता बढ़ जाती है । दोनों एक दूसरे के दिलों में समा जाते हैं। एक दूसरे से मिलना। बात करना। देखना पसंद करते हैं। यह बात शीला के दिलों दिमाग में एक शंका पैदा कर देती है कि इन दोनों के बीच शारीरिक संबंध हैं । वह इसका पुरजोर घर में विरोध करती हैं । मोहल्ले के लोगों को बुलाकर फैसला कराने की धमकी तक दे डालती हैं। सुनील वर्मा अपनी पत्नी को बहुत समझाते हैं, लेकिन शीला मानने के लिए तैयार नहीं होती हैं। फिर सुबह में सुनील वर्मा राधिया और उनके बीच के संबंध के सच को शीला को बताते हैं । उन दोनों के बीच सिर्फ दोस्ती और सहिया के अलावा और कुछ भी नहीं है। शीला, पति के इस सच को स्वीकार करती हैं । शीला के मन में रधिया के प्रति जो शंका थी, वह दूर हो जाती है। फिर दोनों परिवार बहुत ही हंसी खुशी के साथ रहने लगते हैं। इस कहानी के माध्यम से कथाकार ने यह बात कहने की कोशिश की है कि 'झूठा जग पतियाय' सच कहे सो मारा जाए।