स्मृति शेष : शिबू सोरेन ने हताशा और चुनौतियों के बीच प्रकाश का मार्ग प्रशस्त किया था
झारखंड अलग प्रांत संघर्ष के कारण उन्हें कई कई महीने जंगलों में भटकना पड़ा था। जेल की यात्रा करनी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने अपना कदम कभी पीछे नहीं किया और लगातार झारखंड अलग प्रांत के लिए संघर्ष करते रहे थे।

झारखंड अलग प्रांत संघर्ष के प्रमुख योद्धा, झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक सह पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का इस दुनिया से जाना इस प्रांत के लिए एक बड़ी क्षति के समान है। उनका संपूर्ण जीवन झारखंड अलग प्रांत आंदोलन और इस प्रांत को संवारने में बीता था। शिबू सोरेन हमसे उम्र में लगभग चौदह साल बड़े थे। लेकिन जब भी मैं उनसे मिला वे हमेशा एक छोटे भाई के समान सम्मान दिया करते थे। उनका झारखंड की राजनीति में 1970 में प्रवेश हुआ था। तब से लेकर लगातार झारखंड अलग प्रांत की लड़ाई लड़ते रहे थे। उन्होंने 2000 में झारखंड अलग प्रांत लेकर ही दम लिया था। वे छात्र जीवन से ही झारखंड अलग प्रांत के पक्षधर थे। झारखंड अलग प्रांत संघर्ष के कारण उन्हें कई कई महीने जंगलों में भटकना पड़ा था। जेल की यात्रा करनी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने अपना कदम कभी पीछे नहीं किया और लगातार झारखंड अलग प्रांत के लिए संघर्ष करते रहे थे।
मैं भी छात्र जीवन से झारखंड अलग प्रांत का पक्षधर रहा । इस निमित्त मैं झारखंड अलग प्रांत संघर्ष के औचित्य पर रांची से प्रकाशित होने वाले विभिन्न हिंदी अखबारों में नियमित रूप से लेख लिखा करता रहा था। शिबू सोरेन बराबर मेरे आलेख को पढ़ा करते थे। वे मेरे आलेख से काफी प्रभावित भी थे। लेकिन मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। उनसे मेरी पहली मुलाकात ओरमांझी के एक लाइन होटल पर हुई थी । वे अपने कुछ झारखंड आंदोलनकारी सहकर्मियों के साथ चाय पानी के लिए थोड़ी देर के लिए वहां रुके थे । मैं वहां अपने कुछ मित्रों के साथ चाय पी रहा था । शिबू सोरेन को देखकर मेरी जिज्ञासा हुई कि मैं उनसे मिल लूं, तो मैंने उन्हें प्रणाम कर अपना परिचय दिया और कहा कि मैं झारखंड अलग प्रांत आंदोलन के औचित्य पर बराबर अखबारों में लेख लिख रहा हूं। यह बात सुनते ही उन्होंने मेरे पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा कि 'आप अच्छा लिख रहे हैं। इसी तरह लिखते रहें । मैं आपके आलेख को पढ़ता रहता हूं । देखिए, एक न एक दिन हम सब जरुर सफल होंगे । झारखंड अलग प्रांत लेकर ही रहेंगे।'
इस दौरान उनसे झारखंड अलग प्रांत के मुद्दे पर काफी विस्तार से बातें भी हुईं। उन्होंने मेरी बातों को बड़े ही ध्यान से सुना । वे लाईन होटल से जाने से पहले हम लोगों के चाय का बिल का भी भुगतान कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि 'लिखने से कभी डरिएगा नहीं । मैं सदा आपके साथ खड़ा रहूंगा ।' इस बात के लगभग बीस वर्षों बाद सन 2000 में झारखंड अलग प्रांत का गठन हो पाया था । लेकिन झारखंड अलग प्रांत के प्रमुख योद्धा होने के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे । इस बात का उन्हें मलाल था। लेकिन झारखंड को संवारने के लिए उनका संघर्ष जारी था। इस दौरान उनसे कई मुलाकातें हुई । जब भी मैं उनसे मिला, उन्होंने उनके साथ की गई राजनीति की भी चर्चा की । उन्हें झारखंड की सत्ता से दूर रखने के लिए कैसी ओछी राजनीति की गई थी ? इस बात की भी उन्होंने चर्चा की थीं।
हजारीबाग के प्रतिष्ठित चिकित्सक सह लेखक डॉ हीरालाल साहा ने शिबू सोरेन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर 'शिबू सोरेन झारखंड आंदोलन के प्रमुख योद्धा& शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। चूंकि डॉ हीरालाल साहा हमारे लेखकीय मित्र थे, शिबू सोरेन पर पुस्तक लिखने के क्रम में हम दोनों की शिबू सोरेन से कई बार मुलाकात हुई। बातचीत हुई । वे अब कम बोलते थे। और हम लोगों की बातें ज्यादा सुना करते थे । इस दौरान मैंने महसूस किया कि शिबू सोरेन कुछ भूलने लगे हैं। उनमें स्मृति लोग का कुछ असर दिख रहा था। डॉ हीरालाल साहा को उक्त पुस्तक को लिखने में लगभग एक साल का समय लग गया था । जब पुस्तक छप कर आई तब उन्होंने इसकी एक प्रति खुद शिबू सोरेन को भेंट की थी । उक्त पुस्तक का बड़े स्तर पर विमोचन होना था । लेकिन शिबू सोरेन की तबीयत बराबर खराब होने के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया था। बाद में डॉ हीरालाल शाहा का भी निधन हो गया।
मैं इतना कह सकता हूं कि शिबू सोरेन एक जिंदादिल, मजबूत संगठन कर्ता और राजनेता थे । उन्होंने अपने संघर्ष के बल पर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई थी। झारखंड गठन होने के बाद जब इस राज्य के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी थे, तब हजारीबाग में कूद ग्राम में रेलवे निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण किया गया था। जिसमें हजारों की संख्या में लोग विस्थापित हुए थे । मैं और पूर्व विधायक गौतम सागर राणा ने संयुक्त रूप इस विस्थापन के खिलाफ संघर्ष का ऐलान किया था। इसी दौरान भी शिबू सोरेन से भी इस विस्थापन के मुद्दे पर बातचीत हुई थी। उन्होंने हम सबों को अपना नैतिक समर्थन देने का आश्वासन भी दिया था । उनका इस संघर्ष में हम लोगों को मार्ग निर्देशन भी मिलता रहा था। बाद के कालखंड में वे इस राज्य के मुख्यमंत्री भी बने थे। तब तक यह संघर्ष भी शिथिल पड़ गया था। उन्होंने अपनी ओर से कूद में विस्थापित हुए लोगों को भूमिका उचित से उचित मुआवजा मिले, इस निमित्त हजारीबाग के डीसी उचित मार्ग निर्देशित भी किया था। इसका लाभ कूद के विस्थापितों को लोगों को मिला था।
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी, 1944 को रामगढ़ जिले के नामरा गांव में हुआ था। वे अपने बलबूते झारखंड की धरती पर संघर्ष कर देश के एक सफल राजनेता बने। उनकी स्कूली शिक्षा नामर गांव में ही हुई थी। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद कम उम्र ही उनका विवाह हो गया । कृषक पुत्र होने के चलते उन्होंने पिता को खेती के काम में मदद करने का निर्णय लिया था।| लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर थी । इसी कालखंड में उनके पिता शोभराम सोरेन कि हत्या कर दी गयी थी । यह समय उनके जीवन के लिए बहुत ही चुनौती पूर्ण था। उन्होंने प्रारंभ में गांव की चौपाल की राजनीति की थी । बाद के कालखंड में उन्होंने राजनैतिक जीवन की शुरुआत 1970 में शुरू की थी। 23 जनवरी, 1975 को उन्होंने तथाकथित रूप से जामताड़ा जिले के चिरूडीह गाँव में बाहरी लोगो को खदेड़ने के लिये एक हिंसक भीड़ का नेतृत्व किया था। इस घटना में 11 लोग मारे गये थे। उन्हें 68 अन्य लोगों के साथ हत्या का अभियुक्त बनाया गया था। इसके साथ ही उन्होंने झारखंड अलग प्रांत का नारा बुलंद भी किया था। झारखंड अलग प्रांत के लिए उन्होंने संघर्ष भी प्रारंभ कर दिया था।
शिबू सोरेन पहली बार 1977 में लोकसभा के लिये चुनाव में खड़े हुए थे, परन्तु पराजित हो गए थे। लेकिन वे इस पराजय से बिल्कुल हताश नहीं हुए थे । 1980 में वे लोक सभा चुनाव जीते। इसके बाद क्रमश: 1986, 1989, 1991, 1996 में भी चुनाव जीते थे। 10 अप्रैल 2002 से 2 जून 2002 तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे थे। 2004 में वे फिर से दुमका से लोकसभा के लिये चुने गये थे । सन 2005 में झारखंड विधानसभा चुनावों के पश्चात वे विवादस्पद तरीक़े से झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे। परंतु बहुमत साबित न कर सकने के कारण कुछ दिनो के पश्चात ही उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था। ऐसे शिबू सोरेन के जीवन संघर्ष पर गौर किया जाए तो उनका संपूर्ण जीवन झारखंड की राजनीति को समर्पित रहा था । उनका जीवन भागम भाग से भरा रहा था ।जीवन के अंतिम क्षणों तक चुनौतियां उनके समक्ष आती रही थी । इसी दौरान उनके पुत्र मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जमीन घोटाले के मामले में जेल भी जाना पड़ा था । तमाम गतिरोधों के बावजूद शिबू सोरेन कभी हिम्मत नहीं हारे । उन्होंने हताशा और चुनौतियों के बीच प्रकाश का मार्ग प्रशस्त किया था।